रास्तें दो थे
कौन था वह जिसनें
हमारी पहली सांस को रास्ता दिया
जिसपर चलते हुये सांसो ने
कदम बढाना
और बढना सीखा
पर रास्तों के दोहराव ने
युग-युगांतर की
भटकन को साश्वत करार दिया
उन रास्तों पर दुबारा लौटना संभव ना था
भटकना तय था
उन पगडंडियों को किसने मिटाया
जहाँ सौंधी मिट्टी की खुशबू थी !!
कौन था वह जिसनें
हमारी पहली सांस को रास्ता दिया
जिसपर चलते हुये सांसो ने
कदम बढाना
और बढना सीखा
पर रास्तों के दोहराव ने
युग-युगांतर की
भटकन को साश्वत करार दिया
उन रास्तों पर दुबारा लौटना संभव ना था
भटकना तय था
उन पगडंडियों को किसने मिटाया
जहाँ सौंधी मिट्टी की खुशबू थी !!
insaan
ReplyDeleteसोंधी मिटटी की खुशबू भी तो भटका दी गयी है
ReplyDeleteबहुत सुंदर !
ReplyDeletehttp://ntyag.blogspot.in/2012/02/blog-post_23.html
ReplyDeletemy blog :)
जहाँ रास्तों का दोहराव होता है भटकना तय है...
ReplyDeleteमहत्वाकांक्षा की अंधी गलियो में चलते हैं ..
ReplyDeleteसौंधी मिट्टी की खुश्बू वाले पगडंडियों को मिटाकर !!
संध्या जी, जीवन से जुडी इस सार्थक रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
ReplyDelete------
..की-बोर्ड वाली औरतें।
मुझको भी ये अपना भोगा हुआ तथार्थ सा लगता है.अंतर्मन की भावनाओं को सुन्दर तरीके से आपने चित्रित किया है. अच्छी रचना है.
ReplyDeleteप्रभावशाली रचना.....
ReplyDeleteबढिया प्रस्तुति।
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