भटकन है जहाँ

रास्तें दो थे
कौन था वह जिसनें
हमारी पहली सांस को रास्ता दिया
जिसपर चलते हुये सांसो ने  
कदम बढाना
और बढना सीखा

पर रास्तों के दोहराव ने
युग-युगांतर की
भटकन को साश्वत करार दिया
उन रास्तों पर दुबारा लौटना संभव ना था
भटकना तय था

उन पगडंडियों को किसने मिटाया
जहाँ सौंधी मिट्टी की खुशबू थी !!

10 comments:

  1. सोंधी मिटटी की खुशबू भी तो भटका दी गयी है

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  2. http://ntyag.blogspot.in/2012/02/blog-post_23.html

    my blog :)

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  3. जहाँ रास्तों का दोहराव होता है भटकना तय है...

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  4. महत्‍वाकांक्षा की अंधी गलियो में चलते हैं ..
    सौंधी मिट्टी की खुश्‍बू वाले पगडंडियों को मिटाकर !!

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  5. संध्‍या जी, जीवन से जुडी इस सार्थक रचना के लिए बधाई स्‍वीकारें।

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    ..की-बोर्ड वाली औरतें।

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  6. मुझको भी ये अपना भोगा हुआ तथार्थ सा लगता है.अंतर्मन की भावनाओं को सुन्दर तरीके से आपने चित्रित किया है. अच्छी रचना है.

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  7. प्रभावशाली रचना.....

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  8. बढिया प्रस्‍तुति।

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