रहनुमाओं की स्पर्श में चुभन देखा

बदलते चांद को
और 
किनारों पर लहरों को
ठोकर खाते देखा

आंखो का समंदर
नमकीन ठहरा
अक्सर 
पलको पर उमड़ते देखा

बादल बादल
आसमान देखा
पर
कही जमीन हरी तो
कही बंजर देखा

सुना है
वे खींच लाते है बारिशें
पर
रहनुमाओ की पनाह में
उन्हें खाली हाथ देखा

वे जमीन तोड़ते है
और आसमान बाँटते है
उन्हें
जुदा जान को करते देखा ! 

कब्र तक जनाज़ा निकला

चिराग जलाये रखा
मद्धम आंच पर
भूख पकते रहे
उम्मीद में

वक्त बेरहम निकला
पत्थर तोड़ते वक्त
उम्मीद टाँकते रहे
मासूम हथेलियो पर
कई कई छाला निकला  

रिसते जख्म के चेहरे डरावने निकले 
वक्त कोई भी हो साहब
जख्म तो
हरहाल में जख्म निकला

ना उम्मीद जन्मी और ना इंकलाब निकला
मुफ़लिसी में सिर नीचे रही
ईमान की मौत में 
कब्र तक जनाज़ा निकला
 कांच के अक्स में 
और ना जाने क्या क्या निकला !