उदास दिनों में क्षणभंगुर होते सबके सब

उदास दिनों में काग़ज़ पर उँगलियाँ काँपने लगती हैं 

समंदर बनकर आँखें डूब जाती हैं 

होंठ कुछ कहने से पहले कपकपा जाते हैं 

और आवाज़ किसी बर्फ़ के तूफ़ान से घिर जाती है 

सिर्फ़ और सिर्फ़ आकाश की तरफ़ देखती हैं आँखें 

कि बेसुध सन्नाटा पसरा मिलता है दिनों,महीनों और वर्षों


कई बार कुछ इसतरह से 

खुलते जाते हैं उदास दिनों की बेतरतीब तहख़ाने 

जहाँ किताब के कुछ पन्नें  

यूँ ही पलट जाते है और 

स्मृति के पन्नों पर कई-कई डंक एक साथ लगते हैं  

और मुक्त होना शायद इसी को कहते हैं उदास दिनों में कि 

आकाश के अनंत ऊँचाईयों में 

विलीन होने के भाव से भरते जाते हैं हम  


उदास दिनों में 

किससे कहे और 

क्या कहे,

कहाँ से कहे,

किस ओर से पहले

और किस ओर से नहीं ,

क्या है सही और क्या है ग़लत 

इन सबके बीच फँस जाती हैं साँसे 

किस दिशा में सूरज होगा  

रौशनी भी क्या हाथ चूमेगा  

जीवन चक्र में फँसी हुई राहें 

उदास दिनों की सौ बात बताये


सूरज,चाँद,सितारे 

धरती गगन सबके-सब 

होते हैं क्षणभंगुर उदास दिनों में 


ईमानदारी की मोल मिट्टी सी

जब गरज थी,
तब सब
बड़ी ही ख़ुशी से मिले
ख़्वाहिश पूरी हुई
उसके दरवाज़े पर
वह मसीहा ना था
एक ईमानदार बेटा था
दादा जी का 
गरज पूरी हुई सब चलते बने
अपने दबड़े में
और बुद्धिमान बन गए
शालीन और कुलीन भी
और ना जाने क्या क्या 
दादा जी आहत थे 
तमाशे से
उनके विश्वास के ख़ज़ाने को
उनके बेईमान बेटों ने लूटा था 
ईमानदार होना
एक बड़ी ही अजीब दूर्घटना लगती है
क्योंकि ईमानदारी जगह जगह पर ठोकर खाती है
और ठोकर मारने वाले पत्थर अपने ही होते हैं 
अब गरज वाले
अजनवी बनकर मिलते है उससे,
दुखद 
मिट्टी को सोना बनाने वाले
ख़ाली मकान को टटोलते है 
पर उन्हें नहीं पता कि 
रंगमंच के
अंतिम दृश्य में
कुछ भी ना छुप सकेगा
क्योंकि 'वह' हर किरदार को
बड़ी सफ़ाई से पेश करता है !-- संध्या आर्य १६/३/२०२०

कुछ लोग हैं जो भीड़ की आवाज़ बनने में लगे हैं

कई बार दुनिया  
मेरे दादा जी के बाज़ार जितना सिमटी नज़र आती है 
ऐसा लगता है कि 
उस बाज़ार में सब तरह के लोग है जैसे कि टीवी पर हैं 
दूसरे देशों में हैं जैसा की फ़िल्मों में है आदि आदि 

कुछ लोग हैं जो उस बाज़ार में पहचान बनाने में लगे हैं 
तो कुछ लोग दुकान लगाने में 
तो कुछ लोग पूरे बाज़ार के साथ-साथ  
वहाँ के लोगों को भी, अपने मुठ्ठी में रखने के क़वायद में लगे हुए हैं  
कुछ लोग बुरा को अच्छा 
तो अच्छा को बुरा बनाकर लोगों को उलझाये हुए हैं 
उनका यही शौक़ है शायद  

कुछ लोग बाज़ार के नियम के विरुद्ध भी नियम बनाने में लगे हैं  
उसे लागू भी कर रहे हैं 
क्योंकि पूरे बाज़ार की ताक़त उनके हाथ में जो है 
और वही कुछ लोग मज़लूम भीड़ की आवाज़ बनने में लगे हैं 

कुछ औरतें दहलीज़ से बाहर आकर बाज़ार तक पहुँची तो हैं पर 
अब भी उनको उतना समता का,स्वतंत्रता का तथा 
अन्य कई तरह का अधिकार नहीं मिला है 
जितना की मेरे दादा जी को उस बाज़ार ने दे रखा है 

इसतरह से समय बढ़ता जा रहा है 
जो बच्चे थे वे जवान हो चुके है 
और जो जवान थें वे बूढ़े हो चुके हैं  
कुछ लोग दुनिया से विदा ले रहे है 
यानि की बाज़ार से 
पर परिवर्तन की गति बहुत धीमी है और 
आना जाना गतिशील है 

सब लोग अलग-अलग इरादे से 
अलग-अलग काम करते हुये दिख रहे हैं 
यह भूलकर की एकदिन जाना है उन्हें भी
इस बाजार से और मकान से भी


तुम दिल से तो सुनो

एक बचपन 
जो आज फिर फिर मिलता है 
ख़ाली वक़्त में 
और मिट्टी रूह में घुलती है 

जब सपनों से भर रही थी
पिता जी डूबे हुए थे 
दादा जी बाहर 
रहे थे तब

एक साथ 
वक़्त कही सुंदर था 
कही क़रीब था 
और कही दूर होता जा रहा था 

आज भी वक़्त 
ख़्वाब है 
पास पास है 
दूर होकर मुस्कुरा रहा है

फिर किसे पाना 
क्या खोना 
किस पार जाना 
सब हम सब है 

तुमसे आज 
फिर कहती हूँ 
बस मुस्कुरा दो 
जिस्म छूट जाए
रूह मिल जाए !--- संध्या आर्य १४//२०२०

पुकार अमिट अनंत

गुनाह
धर्म का ग़लत मतलब निकालना है
इश्क़ आत्मा है
भौतिकता द्वैत के साथ आई है
जन्म और मृत्यु के बीच ख़त्म होगी

क्षणभंगुर जिस्म पर
सामाजिक नाच की समय सीमा ज़िंदगी है
घुँट घुँट पीने से
प्यास की मिठास
रूह तक पहुँचती है

पहाड़ी से फूटने वाला सोता
उसके लिये है
यह यक़ीन उसे कौन देगा
जहाँ से वो निकलती है
वहाँ कोई पूरब पश्चिम नहीं है
सिर्फ़ संभावनाओं की तलाश शेष है

पुकार अमिट अनंत
शून्य में पड़ी लिबास को
बेवजह आकार मत दो
कहीं खो जाएगी ।