नदी और घास सूखती रहीं
और कही इनसे दूर
हमसब अपने हिस्से के धूप पर रोते रहे
तभी तो खोया है जंगल
खोयी है मीट्टी
और खोयी है ख़ुशबू धरती की
एक भूख ने
दूसरे भूख को खाया है बारी-बारी
पत्थर के ज़मीन पर
घासें नहीं उगा करती
इस तरह कुछ
टुकड़ा टुकड़ा हो जाती है धरती
लाख आईना सूरत दिखाये
पर उसे तो
पत्थर की ठोकर से टूट जाना होता है
बेबसी इस पार जितनी
उसपार भी उतनी ही है
टूटना
मिट्टी को खोना है
मिट्टी में मिलना
खोने के बाद ही होता है।